6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढाँचे का ध्वंश दुनिया के लिए सबसे बड़ी घटना थी , उस ध्वंश ने आज राम मंदिर की आधारशिला रखी ,उसमे एक सरकार भी कुर्बान हुई थी , मुख्यमंत्री को भी इस्तीफ़ा देना पड़ा था ,मुख्यमंत्री जब इस्तीफ़ा दे रहे थे तब उनके शब्द थे राम मंदिर के लिए एक क्या सौ सौ सरकार कुर्बान कर सकता हूँ ,वो शख्स मुख्यमंत्री का पद छोड़कर हिंदुत्व का नायक बन गया ,उसका नाम था कल्याण सिंह ,
नब्बे के दशक में देश की सियासत में दो ही नाम गूंजते थे अटल बिहारी बाजपेयी और कल्याण सिंह , 1991 में कल्याण सिंह जब भाजपा के पहले मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता में आये उस वक्त यूपी में नक़ल का बोलबाला था , किताबे रखकर हाईस्कूल और इंटर की बोर्ड परीक्षाओं में नकल कराई जाती थी लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद कल्याण सिंह ने एक ऐतिहासिक फैसला किया जिसने उत्तर प्रदेश में नकल माफियाओं की चूलें हिला दी उस वक्त राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री हुआ करते थे कल्याण सिंह एक नकल अध्यादेश लेकर आए जिसके दम पर उन्होंने गुड गवर्नेंस को बढ़ावा दिया नकल अध्यादेश के मुताबिक बोर्ड परीक्षा में नकल करते हुए पकड़े जाने वालों को जेल भेजने के इस कानून ने कल्याण सिंह को एक सख्त प्रशासक बना दिया यह कानून उत्तर प्रदेश में नकल माफियाओं के लिए काल बन गया,
उसके बाद 6 दिसंबर 1992 की वह घड़ी आई जब , 221 सीटें लेकर उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज कल्याण सिंह सरकार ने अपनी कुर्बानी दे दी,
उसके बाद 1997 में कल्याण सिंह एक बार फिर मुख्यमंत्री बने और इस बार भी उनका कार्यकाल सुर्खियों में रहा अपनी बेबाकी के लिए विख्यात कल्याण सिंह ने भाजपा के सीनियर लीडर से भी पंगा लेने में गुरेज नहीं किया और तो और उन्होंने अटल बिहारी वाजपेई को यह तक कह दिया कि अगर आप सांसद बन पाएंगे तभी तो प्रधानमंत्री बनेंगे, उसके बाद कल्याण सिंह का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव भरा रहा,
5 जनवरी 1932 को उत्तर प्रदेश की अलीगढ़ की अतरौली में कल्याण सिंह का जन्म हुआ, कल्याण सिंह लोधी समाज से आते हैं, साल 1962 महज 30 साल की उम्र में एक युवा जनसंघ से पहला चुनाव लड़ता है लेकिन इस चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ता है लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी 5 साल बाद फिर चुनाव हुए और इस बार अतरौली से चुनाव जीतने में कामयाब रहे उसके बाद 8 बार अतरौली से कल्याण सिंह विधायक रहे, जिस वक्त कल्याण सिंह ने अपनी सियासी पारी का आगाज किया उस वक्त उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह ने गैर कांग्रेसी राजनीति का झंडा उठा रखा था, हरित क्रांति की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति भी पहले से बेहतर हुई थी और ओबीसी बिरादरी का एक बड़ा वोट बैंक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मौजूद था यही वजह थी कि धीरे धीरे कर कल्याण सिंह जनसंघ के जरिए पिछड़ी जातियों में अपनी पैठ बना कर उनका चेहरा बनने लगे 1977 में जब पहली बार जनता सरकार बनी तब पिछड़ी जातियों का एक बड़ा प्रतिनिधित्व उस सरकार में था।
जनसंघ के बाद भाजपा का अभ्युदय हुआ लेकिन 1984 में भाजपा को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा यहां तक की अटल बिहारी बाजपेई खुद चुनाव हार गए, लेकिन उसी के बाद भाजपा को राम मंदिर का मुद्दा मिल गया और लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ यात्रा ने बीजेपी को राम मंदिर आंदोलन का नायक बना दिया, शाहबानो प्रकरण में भी बीजेपी को बहुत फायदा पहुंचाया और कांग्रेस को हाशिए पर डाल दिया अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवा ना हो राम मंदिर के संकल्प को आगे बढ़ाना हो हिंदुओं को लामबंद करना हो इन तमाम फैसलों ने भारतीय जनता पार्टी की सियासत को एक नई धार दे,
90 के दशक में ही मंडल और कमंडल की सियासत भी शुरू हो गई आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का वर्गीकरण किया गया और तब पिछड़ी जातियों की सियासत को असली पहचान मिली, सवर्णों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा ने कल्याण सिंह को पिछड़ों का चेहरा बनाया और गुड गवर्नेंस का नारा देकर कल्याण सिंह को इसका नायक बना दिया राम मंदिर आंदोलन मैं अपनी सरकार की आहुति देने के बाद अपनी सजातीय वर्ग में तो कल्याण सिंह नायक बन ही गए लेकिन पिछड़े वर्ग में भी उनकी मजबूत पैठ बन गई, देखते देखते पूरे देश से पिछड़ी जातियों के नेता पार्टी में अपनी मजबूत पैठ बनाने लगे लेकिन वहीं से पार्टी के अंदर बगावत भी शुरू हो गई सवर्णों ने पिछड़ी जातियों को मिल रहे ज्यादा समर्थन के खिलाफ भितरघात करना शुरू किया अंदर ही अंदर सवर्ण और पिछड़ों के बीच पार्टी में जंग शुरू हो गई।
लेकिन इस जंग के बीच उत्तर प्रदेश की सियासत में नए नए समीकरण जन्म ले रहे थे, 1995 में पहली बार भाजपा और बसपा ने मिलकर सरकार बनाई थी, अगड़ों और पिछड़ों के बीच गठजोड़ का यह एक अभिनव प्रयोग था, लेकिन यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं हुआ और भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया जिसके बाद राष्ट्रपति शासन लगाया गया फिर तेरहवीं विधानसभा के चुनाव 1996 में हुए और तब भी किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला उसके बाद भाजपा और बसपा के बीच में एक समझौता हुआ इसके तहत छह छह महीने दोनों पार्टियों ने मुख्यमंत्री बनने पर सहमति जताई सबसे पहले मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी उसके बाद जब 6 महीने का कार्यकाल खत्म हो गया तब कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने भाजपा के अंदर ही लोग नहीं चाहते थे कि कल्याण मुख्यमंत्री बने लेकिन कल्याण सिंह तब तक सियासत में चमकता हुआ सितारा बन चुके थे ऐसे में उन्हें हाशिए पर लाना पार्टी के लिए घातक हो सकता था लेकिन महज 1 महीने के अंदर ही मायावती ने कल्याण सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, लेकिन तब उत्तर प्रदेश में 1 नए तरीके की जोड़-तोड़ की सियासत शुरू हुई बसपा कांग्रेस और जनता दल में जबरदस्त तोड़फोड़ हुई वहां से विधायक टूटकर भाजपा में आ गए इन दलबदलू पर फैसला विधानसभा अध्यक्ष का होता है और फैसला भाजपा के हित में गया, उसके बाद उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने वह काला दिन भी देखा जब विधानसभा में विधायकों के बीच लात घुसा भी हुआ,जोड़-तोड़ से सरकार बनाने के बाद विधानसभा में बहुमत साबित करने के बाद कल्याण सिंह ने सभी बागियों को मंत्री भी बना दिया पहली बार दूसरी पार्टियों से टूट कर आए लोगों को मिलाकर 93 मंत्रियों का मंत्रिमंडल बना,
दूसरी बार सत्ता में आए कल्याण सिंह ताबड़तोड़ फैसले ले रहे थे प्राथमिक स्कूलों में भारत माता की वंदना के साथ ही यस सर की जगह वंदे मातरम को बोलने का आदेश पारित किया गया सरकार ने राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े सभी लोगों के मुकदमे वापस ले लिए और मंदिर निर्माण का संकल्प भी पास किया गया इतना ही नहीं 90 दिन में उत्तराखंड राज्य बनाने का ऐलान भी किया गय
उसके बाद 21 फरवरी 1998 को यूपी का एक काला दिन भी देखना पड़ा राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को रात में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी जबकि जगदंबिका पाल लोकतांत्रिक कांग्रेश पार्टी से कल्याण सरकार में ही ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर थे, इस फैसले के विरोध में अटल बिहारी बाजपेई ने आमरण अनशन शुरू कर दिया रात में ही हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया अगले दिन हाईकोर्ट ने राज्यपाल के फैसले पर रोक लगा दी और कल्याण सिंह सरकार को बहाल कर दिया लेकिन जगदंबिका पाल मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थे सुबह-सुबह ही सचिवालय में जगदंबिका पाल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए उसके बाद वहां कल्याण सिंह की पहुंच गए या नहीं एक कुर्सी के लिए दो-दो मुख्यमंत्री, खैर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री काल को ही सही माना और जगदंबिका पाल का चैप्टर खत्म हो गया,
उसके बाद वह दिन भी आया कि कल्याण सिंह पार्टी छोड़ कर चले गए उसके पीछे की वजह उनकी महिला मित्र कुसुम राय को बताया जाता है लोग बताते हैं कि उस वक्त कुसुम राय का ऐसा सिक्का चलता था क्यों कुछ भी कह दे कोई उनकी बात काट नहीं सकता था आजमगढ़ की रहने वाली कुसुम राय 1997 में भाजपा के टिकट पर लखनऊ के राजाजीपुरम से सभासद का चुनाव जीती थी लेकिन कल्याण सिंह से नजदीकियों की वजह से सरकारी बंगलों में रहती थी और बेहद ही पावरफुल थी, कुसुम राय की वजह से गंगा चरण राजपूत को कल्याण सिंह ने पार्टी से बाहर कर दिया राम कुमार शुक्ला जो संघ परिवार से ही आए थे उन्हें भी कल्याण सिंह ने बाहर का रास्ता दिखा दिया कल्याण सिंह को लगने लगा था उत्तर प्रदेश में पार्टी उन्हीं से चलती है, लेकिन वह दौर आया जब उन्हें पार्टी से बाहर जाना पड़ा, लेकिन जल्द ही कल्याण सिंह को एहसास हो गया कि कोई व्यक्ति विचारधारा से बड़ा नहीं हो सकता यही वजह है कि कल्याण सिंह फिर पार्टी में आए 2007 में पार्टी ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बनाकर चुनाव उन्हीं के कंधे पर लड़ा लेकिन पार्टी की लुटिया डूब गई उसके बाद कल्याण सिंह को लगने लगा कि वह पार्टी में हाशिए पर चले गए और वह सपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़कर सांसद हो गए उसके बाद सपा से भी अलग कल्याण ने होकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई लेकिन उस पार्टी के 200 प्रत्याशियों हारने के बाद भी कल्याण सिंह को कोई फायदा नहीं हुआ अपने ही घर अतरौली में उनकी बहू प्रेमलता चुनाव हार गई बेटा राजू चुनाव हार गया और एक भी सीट कल्याण सिंह को नहीं मिली, उसके बाद फिर कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी हुई और 2014 में कल्याण सिंह को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया उसके बाद 2015 में उन्हें हिमाचल का राज्यपाल का अतिरिक्त प्रभार भी दिया गया आज भी कल्याण सिंह की गिनती भाजपा में पिछड़ी जातियों के एक बड़े नेता के तौर पर होती है और कम से कम उत्तर प्रदेश की सियासत में कल्याण सिंह के योगदान को कम करके नहीं देखा जा सकता।