लखनऊ। कहते हैं इस दुनिया में माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चे के भविष्य को संवारता और निखारता है। समाज के तानेबाने से बारे में छात्र को अवगत कराता है। आज गुरू और शिष्य के पावन पर्व है। ऐसे में हम आपको देश की पहली महिला टीचर से रूबरू कराने जा रहे हैं। जिसने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए पूरी जिंदगी खपा दी। कलम-दवात के बदले उन्हें पत्थर खाने पड़े। लोग कचरा-कूड़ा उन पर डालते, पर उनके कदम नहीं रूके और बदस्तूर आगे बड़ते रहे।
इस वजह से बनाया जाता है शिक्षक दिवस
5 सितंबर को शिक्षक दिवस भारत के पहले उप-राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर मनाया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योग्यदान अतुल्य है। उन्होंने अपने जीवन के 40 साल बतौर शिक्षक दिए है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बाद दूसरा नाम आता है सावित्रीबाई फुले का। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में एक दर्जा हासिल किया है। जब भी शिक्षा की बात होगी वहां सावित्रीबाई फुले का नाम जरूर याद किया जाएगा।
कौन हैं सावित्रीबाई फुले
देश की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। इन्हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़े। 18वीं सदी के वक्त महिलाओं का स्कूल जाना भी पाप समझा जाता था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है।
9 साल की उम्र में हुआ था विवाह
सावित्रीबाई का विवाह महज नौ साल की उम्र में वर्ष 1940 में समाजसेवी ज्योतिराव फुले से हो गया। शादी के बाद वह जल्द ही अपने पति के साथ पुणे आ गईं। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहुत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया। सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया और एक योग्य शिक्षिका बनीं। सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी।
एक साथ खोले पांच स्कूल
एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया। सावित्रीबाई गली-मोहल्लों में जाया करती थीं। लोगों को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित भी करतीं। इस दौरान उन्हें समाज के ठेकेदारों से भी जूझना पड़ा।
घर से निकलते वक्त लेकर चलती थीं साड़ी
भारत में आजादी से पहले समाज के अंदर छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां व्याप्त थी। सावित्रीबाई फुले का जीवन बेहद ही मुश्किलों भरा रहा। दलित महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने, छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने के कारण उन्हें एक बड़े वर्ग द्वारा विरोध भी झेलना पड़ा। वह स्कूल जाती थीं, तो उनके विरोधी उन्हें पत्थर मारते और उनपर गंदगी फेंकते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी हुई साड़ी बदल लेती थीं।
10 मार्च 1897 को ली अंतिम सांस
सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन 1890 में हो गया। उस समय उन्होंने सभी सामाजिक मानदंडों को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दी। इसके करीब सात साल बाद जब 1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैला तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी, इस दौरान वे खुद भी प्लेग की शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली।