गोरखपुर। वैसे तो अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की बिगुल मेरठ और कानपुर से फूंका गया। मंगल पांडेय और नाना साहब के क्रांतिवीरों ने गोरों पर हमला कर उन्हें भारत छोड़ने का अल्टीमेटम दिया था, पर गोरखपुर जनपद में आजादी की ये चिंगारी पहले जल चुकी थी। यहां चौरीचौरा में जनविद्रोह से ब्रिटिश हुकूमत हिल उठी थी। चार फरवरी 1922 को जिला मुख्यालय से करीब 15 मील दूर पूर्व डुमरी नामक स्थान पर बड़ी संख्या में स्वयंसेवक इकट्ठा हुए और स्थानीय नेताओं के संबोधन के बाद चौरीचौरा थाने पहुंच गए। यहां पुलिस से पिटाई का स्पष्टीकरण मांगने लगे। इसी दौरान पुलिस ने गोली चला दी, जिसमें 26 लोगों की मौत हो गई। साथियों की मौत से आक्रोशित स्वयंसेवकों ने गेट को बंद कर थाने को आग लगा दी। इस घटना में एक सब इंस्पेक्टर और 22 पुलिस कर्मियों की जलकर मौत हो गई। मात्र एक चौकीदार जिंदा बचा था।
क्यों भड़की चिंगारी
उत्तर प्रदेश राजकीय अभिलेखागार की ओर से इससे संबंधित दस्तावेज के मुताबिक, आठ फरवरी 1921 को गांधी जी पहली बार गोरखपुर आए। जिले के कांग्रेसी उस समय अपने को ’राष्ट्रीय कार्यकर्ता’ कहते थे। आंदोलन से प्रभावित लोगों ने सरकार की शराब की दुकानों का बहिष्कार कर दिया। साथ ही अंग्रेजों को उनके राजस्व का एक प्रमुख जरिया ताड़ी (ताड़ के पेड़ से प्राप्त होने वाला रस) देना बंद कर दिया। बड़ी संख्या में लोग आयातित वस्त्रों को छोड़कर गांधी टोपी और खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करने लगे। भारत में इस आंदोलन से उत्पन्न हुई स्थिति को संभालने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ’प्रिंस ऑफ वेल्स’ को भारत भेजा, लेकिन विरोध स्वरूप आंदोलन ने और गति पकड़ ली।
पिटाई से गुस्साए स्वयंसेवकों ने लगा दी आग
गांधी जी के गोरखपुर आने के लगभग एक साल बाद आंदोलन के क्रम में एक फरवरी 1922 को चौरीचौरा से सटे मुंडेरा बाजार में शांतिपूर्ण बहिष्कार किया जा रहा था। इसी बीच चौरीचौरा पुलिस स्टेशन के पास एक सब इंस्पेक्टर ने कुछ स्वयंसेवकों की पिटाई कर दी। चार फरवरी 1922 को जिला मुख्यालय से करीब 15 मील दूर पूर्व डुमरी नामक स्थान पर बड़ी संख्या में स्वयंसेवक इकट्ठा हुए और स्थानीय नेताओं के संबोधन के बाद चौरीचौरा थाने पहुंच गए। यहां पुलिस से पिटाई का स्पष्टीकरण मांगने लगे। बदले में पुलिस ने फायरिंग कर दी और 26 लोगों की मौत हो गई। गुस्साई भीड़ ने थाने का गेट बंद कर आग लगा दी। थाने के अंदर मौजूद पुलिसकर्मियों की मौत हो गई।
आज भी मौजूद है थाना
1857 में शुरू हुआ ये पुलिस स्टेशन आज किसी सामान्य थाने की तरह है। आंगन में जब्त गाड़ियां खड़ी हैं, फरियादियों का आना-जाना लगा रहता है इसके पुराने हिस्से में आज भी उन पुलिसवालों का समाधि स्थल है, जिनकी मौत 100 साल पहले हुई थी। अंग्रेजों ने इसे 1924 में ही बनवा दिया था। इससे थोड़ी ही दूरी पर चौरी-चौरा के शहीदों का स्मारक बना है। पुलिस वालों के समाधि स्थल और शहीद स्मारक को रेल की पटरियां बांटती हैं। ये वही पटरियां हैं, जहां पुलिस ने क्रांतिकारियों पर फायरिंग की थी और हिंसा भड़क गई। रेलवे इन पटरियों का आज भी इस्तेमाल कर रहा है।
चौरी-चौरा दो अलग-अलग गांव थे
दरअसल चौरी-चौरा दो अलग-अलग गांव थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ कर जनवरी 1885 में एक रेलवे स्टेशन शुरू किया। शुरुआत में सिर्फ रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था। पटरियों के पार शहीद स्मारक की मीनार को घटना के करीब 51 साल बाद 1973 में गोरखपुर जिले के लोगों ने चंदा इकट्ठा करके बनाया था। 13,500 रुपए की लागत से 12.2 मीटर ऊंची मीनार बनाई गई थी। इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था। जिसे बाद में बदल दिया गया। चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति इसकी देखभाल करती है।
ये पुलिसकर्मी मारे गए
इस कांड में सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह, रघुवीर सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, मंगरू चौबे, रामबली पाण्डेय, इन्द्रासन सिंह, रामलखन सिंह, मर्दाना खां, जगदेव सिंह और जगई सिंह की आग में जलकर मौत हो गई थी। उस दिन अपना वेतन लेने के लिए थाने पर आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग में फेंक दिया। कुल मिलाकर 23 पुलिसवाले जिंदा जलाकर मार दिए गए। हालांकि थाने के पास ही रह रहे गुप्तेश्वर सिंह की पत्नी और बच्चों को भीड़ ने हाथ भी नहीं लगाया।
19 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया
इस घटना के बाद पुलिस ने भीड़ 6,000 लोगों का चिन्हित किया। जिनमें से करीब 1,000 लोगों से पूछताछ की गई। 225 लोगों पर मुकदमा चलाया गया और गोरखपुर जिला कोर्ट में सुनवाई हुई। कांग्रेस कार्यकर्ता मीर शिकारी ही केस में सरकारी गवाह बने। सेशन जज एचई होम्स ने 9 जनवरी 1923 को अपना फैसला सुनाया। 172 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई। गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने जज के इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की और मदन मोहन मालवीय ने ये केस लड़ा। हाईकोर्ट के दो जज सर ग्रिमउड पीयर्स और जस्टिस पीगॉट ने इस फैसले में 19 आरोपियों को फांसी की सजा बरकरार रखी। 16 लोगों को काला पानी भेजा गया और 38 लोगों को बरी कर दिया। 2 से 11 जुलाई 1923 को सभी 19 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया।