अमरोहा। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी को लेकर क्रांतिकारियों ने मेरठ से लेकर कानपुर में बिगुल फूंक दिया था। रणबांकुरे चुन-चुन कर ब्रिटिश फौज, पुलिस और अफसरों को मौत के घाट उतार रहे थे। तभी इसकी चिंगारी गंगा की गोद में बसे अमरोहा में पहुंच गई। यहां के तिगरी गांव निवासी दो दोस्त चंद्रदत्त त्यागी और उत्तम सिंह त्यागी ने गोरों पर हल्लाबोल दिया। ग्रामीणों का समूह बनाकर अंग्रेजों की कोठी पर हमला कर दिया। लूटपाट करने के बाद कोठी को आग के हवाले कर दिया। दोनों दोस्त पकड़े गए और कई साल जेल में रहे। सलाखों से बाहर आए तो भारत से ब्रिटिश हुकूमत का तख्ता पलट हो चुका था।
तिगरी गांव निवासी रमेश चंद्र त्यागी (88), जो चंद्रदत्त त्यागी के भतीजे हैं, ने बताया कि, उस समय हमारी उम्र लगभग 13 साल की रही होगी। चाचा चंद्रदत्त त्यागी और उनके दोस्त उत्तम सिंह त्यागी की अंग्रेजों को तलाश रहती थी। जब भी गांव में अंग्रेज आते तो सिर्फ इन दोनों को ही पूछते और कहते जहां भी मिले, तुरंत गिरफ्तार करें। ऐसे ही दो बार जेल भी गए। बताते हैं, चाचा और उत्तम सिंह त्यागी की दोस्ती के किस्से पूरे जनपद में नहीं, बल्कि यूपी में सुनाई दिया करते थे।
एक घटना का जिक्र करते हुए रमेश ने बताया कि, दोनों को अंग्रेजों ने एक घर के अंदर घेर लिया। चाचा ने तमंचे से फायरिंग शुरू कर दी और उत्तम सिंह को किसी से बाहर निकाल दिया। करीब दो घंटे तक अंग्रेजों से लड़ने के बाद चाचा भी भागने में कामयाब रहे। रमेश बताते हैं कि, एक बार चंदौसी से और दूसरी बार मंडी धनौरा के पत्थरकुटी मंदिर से अंग्रेजों ने दोनों को गिरफ्तार किया। लगभग तीन साल जेल में बिताए।
रमेश बताते हैं, जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तो अंग्रेजों ने हौसला तोड़ने के लिए दोनों के घर पर तोड़फोड़ करते हुए सामान भी लूटा था। मगर, आजादी का जुनून जिंदा रहा। दोनों दोस्त एक साथ रहते थे, दिन-रात घर से बाहर दुबके रहते थे। ताकि अंग्रेजों के हाथ न लगे सके। इतना ही नहीं, एक बार दोनों ने अंग्रेज दरोगा और दो सिपाहियों के लाठी के दम पर बंदी बना लिया था। उनके हथियार छीन लिए और पेड़ पर बांधकर पिटाई की थी।
रमेश बताते हैं, गांव के लोगों को पता रहता था कि वह कहां छिपे हैं मगर, वह अंग्रेजों को नहीं बताते थे। ग्रामीण को पीटते थे मगर, फिर भी मुंह नहीं खोलते थे। बोले, अंग्रेजों ने चाचा को रोज 25 कोड़ों की सजा देने का आदेश किया था। इसके बाद देश के प्रति वफादारी कम नहीं हुई। आखिर में आजादी मिली तो आसपास के गांव के लोग तिगरी में आ गए और फिर जश्न मनाते हुए तिरंगा फहराया गया था।
ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों की दमनकारी नीति से क्षेत्रीय लोग परेशान थे। क्षेत्र के गांव पीपली तगां में अंग्रेजों ने यहां आलीशान कोठी का निर्माण किया था। बड़े बुजुर्गों की मानें तो ब्रिटिश अधिकारी अक्सर यहां आकर रुकते थे। साथ ही उनकी कोर्ट भी यहां लगा करती थी। कोठी के आसपास से गुजरने वाले लोगों को अंग्रेजी अधिकारी जबरदस्ती रोककर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया करते थे। जिसको लेकर आजादी के मतवालों में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क रही थी।
वर्ष 1942 में जब पूरे देश में अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया गया तो आजादी के मतवालों ने मौका पाकर इस कोठी पर चढ़ाई कर इसे आग के हवाले कर दिया था। साथ ही कोठी में रखे कीमती सामान को लूट लिया था। इस कांड में दोनों दोस्तों ने अहम रोल निभाया था। इस मामले में ब्रिटिश अधिकारियों ने स्थानीय क्रांतिकारियों पर मुकदमे भी दर्ज कराए थे। हालांकि 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद भारत सरकार ने इन सभी मुकदमों को वापस ले लिया था। एक बीघा भूमि में बनी इस ऐतिहासिक धरोहर की देखरेख वर्तमान में सिंचाई विभाग द्वारा की जा रही है।